विवाह
समारोहों पर अपव्यय
मनुष्य समाज में विवाह स्त्री व पुरुष रूपी दो आत्माओं के पवित्र
मिलन से संरचित संस्था है जिसका उद्देश्य
संतानोत्पति द्वारा उनकी पीढ़ी को
आगे ले जाना है व साथ ही विवाहित दम्पति द्वारा मिल कर उनके
द्वारा जीवन में विविध प्रकार के सामाजिक
कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए सहयोग
करने के लिए एक साथ कार्य करना है. एक ओर जहां विवाह एक पवित्र सामाजिक
संस्था है, दूसरी और यह स्त्री पुरुष के एक साथ रहने के लिए एक सामाजिक और
कानूनी स्वीकृति भी है. दुनिया में
अलग अलग समाजों में
विवाह की अलग अलग रस्में और तरीके हैं व
विवाह को अलग अलग समाजों में अपने अपने साधनों और तरीकों से हर्षोलास से मनाया
जाता है.
हमारे धर्म ग्रंथों जैसे
यजुर्वेद और मनु समृति में, विवाह के आठ प्रकार वर्णित हैं. ये हैं ब्राह्मण विवाह, देव
विवाह, ऋषि विवाह, प्रजापति
विवाह, असुर विवाह, गंधर्व
विवाह, राक्षस विवाह, पिशाच विवाह.
इन आठ विवाह पद्धतियों में से देव विवाह पद्धति हिंदू
धर्म में सबसे अधिक
प्रचलित है जिसमें पुरोहितों व पंडितों द्वारा विशेष मन्त्रों का उचारण करके विवाह करवाया
जाता है, तथापि, अन्य धर्मों में स्त्री पुरुष जोड़े भी अपने अपने सांस्कृतिक अनुष्ठानों
और तरीकों के अनुसार विवाह करते हैं. हालांकि
वर्तमान में एक बात सभी में स्थानों पर आम हो चुकी है और वह हैं विवाह
के ऊपर आवश्यकता से अधिक व्यय करना. इससे समाज में विभिन्न वर्गों के बीच आर्थिक विसमतायें उत्पन्न हो रही है व समाज का
आर्थिक क्षरण हो रहा है.
मैं हाल
ही में अपने एक दोस्त
की बेटी के विवाह
समारोह में सम्मिलित हुआ. वह केन्द्रीय सरकार के विभाग में वरिष्ठ क्लर्क के रूप में काम कर रहा था. उस की बेटी के विवाह
पर एक ही दिन में बीस लाख रुपए से अधिक खर्च हुए. इस व्यय का पचास प्रतिशत खाने, सजावट और मेरिज
रिसोर्ट में अन्य
खर्चों पर खर्च करने
के लिए हुआ था.
एक खाने की थाली
की लागत तीन हजार रुपये बैठी थी. इस दायित्व का निर्वाह करने के
लिए मेरे दोस्त ने एक सरकारी बैंक
से ऋण लिया है.
उसके द्वारा पिछले तीस वर्षों में जो रकम कठिन परिश्रम
करके पेट काट काट कर इकट्ठी की गई थी वह
एक ही झटके के साथ खर्च कर दी गई. बेटी
ने अमीर तबके के एक लड़के से विवाह करने का निर्णय लिया था.
यह एक उदाहरण मात्र है. इसे देख कर मेरे मन
में विचार तरंगें उत्पन्न हुई की भारतीय समाज कहाँ जा रहा है. जो धन उपरोक्त विवाह समारोह पर आवशयकता से अधिक खर्च
किया गया, यदि उसका एक हिस्सा बचा लिया जाता तो वह नवविवाहित जोड़े के अधिक आवश्यकता वाले प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जा सकता था.
यहाँ कई लोग तर्क देंगें की जिन लोगों ने विवाह
किया उनकी अपनी इच्छा है की वे जितना चाहे खर्च करें, औरों को कोई तकलीफ नहीं होनी
चाहिए. परन्तु यह तर्क सही नहीं है. समाज में एक व्यक्ति जब एक विशेष कार्य करता है तो उसका प्रभाव निश्चित
रूप से अन्य लोगों पर भी पड़ता है. नक़ल करने की एक परिपाटी समाज में चल पड़ती है.
इससे अमीर व उच्च मध्यम वर्ग तो अधिक प्रभावित नहीं होते हैं पर निम्न मध्यम वर्ग
के लोग मानसिक रूप से हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं .
तथापि
विवाह एक विशुद्ध रूप से निजी मामला है. आम तौर पर, राज्य को इस संस्था में हस्तक्षेप नहीं करना
चाहिए लेकिन विवाह समारोहों पर अत्यधिक खर्च करने की बीमारी समाज में कैंसर की तरह
फैल रही है. इस स्थिति में राज्य मूक दर्शक बन कर नहीं रह सकता. सरकार को विवाह
रुपी संस्था में व्याप्त हो रही आर्थिक बुराइयों को दूर करने के लिए उचित पग उठाने
ही होंगे.
दहेज
भी विवाह रुपी संस्था में जुडी एक बुराई है पर भारत सरकार ने जाहिरा तौर पर काफी हद तक इस
बुराई को रोकने के लिए विरोधी दहेज कानून
बना दिया है. अब दिखावा और आडम्बर रचाने
की एक नई बुराई उत्पन्न हो गई है जिससे सामाजिक ढांचा खिसक रहा है. इससे और भी कई अन्य बुराइयां पनप
रही है जैसे रिश्वतखोरी और टैक्स चोरी.
कोई भी समझदार व्यक्ति सोच समझ कर ही इस प्रकार के कायों पर खर्च करना चाहेगा पर
सामाजिक ओ झूठे आडम्बरों के दबाव के आगे झुक कर भेड़ चाल के चलते हर कोई अपनी औकात से अधिक खर्चा
करने को मजबूर होता. यह बुराई जंगल की आग
की तरह फैल रही है. अत्यधिक व्यय शादी हॉल, विवाह रिसॉर्ट्स, होटल , सजावट, प्रकाश
व्यवस्था और खाद्य पदार्थों पर विवाह के दौरान खर्च किया जाता है.
अपनी
कमाई का एक हिस्सा हर व्यक्ति बुरे दिनों
के लिए बचाना चाहता है. लेकिन यह बचत आडम्बर से भरपूर समारोहों में पानी की तरह बह
जाती है. भारतीय अर्थ व्यवस्था पर भी इस
बात का दूरगामी विपरीत असर पड़ता है. इस प्रकार के समारोहों पर खर्च किये गए धन का
एक बड़ा हिस्सा कुछ मुठी भर लोगों की जेबों में चला जाता है, इससे किसी प्रकार का
लंबी अवधि का क्रमिक रोज़गार उत्पन्न नहीं होता है. यदि इस प्रकार की गई बचत को
बैंकों में जमा कर दिया जाये तो नव विवाहित दम्पति को आने वाले दिनों में अपने
बच्चों की पढ़ाई व मकान आदि के लिए पूँजी जमा करने के लिए बीस तीस वर्ष इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा. देश कि अर्थ वयव्स्था भी
मजबूत् होगी. लोगों को पहले से जमा पूँजी का मानसिक संबल प्राप्त होता रहेगा जो
उन्हें मानसिक चिंताओं से मुक्ति प्रदान करेगा.
सवाल
यह भी है की इस प्रकार की बुराइयों के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या सीधे सीधे युवा
वर्ग जिम्मेदार या उनके माता पिता या
परोक्ष रूप से भारत सरकार या पूरा समाज ही जिम्मेदार है. कुछ युवा भी देखा देखी में अपने विवाह को तड़क भड़क के साथ मनाने के लिए
अपने माता पिता पर दबाव बनाते हैं.
तर्क यह दिया जाता
है की जीवन में विवाह एक ही बार होगा, बार बार नहीं. वे अपने मित्रों, अड़ोसियों
पड़ोसियों और रिश्तेदारों द्वारा विवाह
समारोहों पर पर किये गए खर्च से तुलना करते हैं. पर उन लोगों को सोचना चाहिए की जो
पैसा खर्च किया जा रहा है उसे कमाने के लिए कितना समय लगा है व् उनके माता पिता
द्वारा कितनी पीडाएं झेली गई है.
पडोसी देश पाकिस्तान भले ही तरह तरह के
निंदनीय कार्य करता हो पर वहां की सरकार के प्रयासों से पाकिस्तान में विवाह
समारोहों को एक सिमित ढंग से मनाने के बारे एक कानून बनाया गया है, जो सराहनीय हैं.
वहाँ विवाह समारोहों में परोसे जाने वाले पकवानों व खर्चे जाने वाले धन की उपरी
सीमा निश्चित कर दी गई है. इसी कानून द्वारा बारातियों की संख्या भी निश्चित कर दी
गई है. भारत सरकार इस मुद्दे पर चुप है. यह एक विचार करने योग्य बात है.
भारत
में किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन ने इस् में बारे आवाज नहीं उठाई है. इस
बुराई को दूर करने के लिए भारत सरकार ने विवाह से अधिक खर्च किया व्यय पर सीमा
लागू करने के लिए एक कानून बनाना चाहिए. ऐसे समारोहों के ऊपर खर्च करने की उपरी
सीमा तय कर देनी चाहिए. उल्लंघना करने वालों को दण्डित करने का प्रावधान होना
चाहिए.
यह निश्चित होना
चाहिए की विवाह समारोह में कितने व्यंजन परोसे जाने चहिये और कितने दिन तक ऐसे
समारोह मनाने चाहिय. मांस और मदिरा सेवन
पर ऐसे समारोहों में पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध होना चाहिए. भारत सरकार सरकारी स्तर
पर विवाह समारोह आयोजित करने के लिए एक विवाह मंत्रालय की स्थापना भी कर सकती है
जो किसी भी व्यक्ति की धार्मिक प्रथा के
अनुसार एक न्यूनतम खर्चे में विवाह समारोह संपन्न करवाया करे. तत्पश्चात नव
विवाहित जोड़ा अपने स्तर पर जो मर्जी जैसे मर्जी करता रहे पर विवाह के नाम पर नहीं. इस से सामाजिक समरसता स्थापित होगी.
विवाह समारोहों पर
किया जाने वाला अधिकतर खर्चा अनुत्पादक है जो भारतीय अर्थ ववस्था पर नकारात्मक
प्रभाव डालता है. इससे लंबी अवधि का कोई रोज़गार उत्पन्न नहीं होता. अतैव इस पर
लगाम लगाने की आवश्यकता है. लेकिन सवाल है की बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा?
सरकार तो बाद की बात है. पहला कदम समाज को
ही कड़वा घूँट पी कर उठाना होगा विशेषकर युवा वर्ग को. विवाह समारोह एक दो दिन तक
ही चलता है. इन एक दो दिनों में बहुत चकाचौंध होती है. मजा तो बहुत आता है पर जो
आर्थिक, मानसिक और सामाजिक दुष्प्रभाव
पड़ते हैं, उनका असर कई वर्षों तक रहता है. आम आदमी इससे उबर नहीं पाता है.
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लेखक : गौतम प्रकाश
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